Friday, October 20, 2017

Grow In

When I was a kid,
Love was pure and the world was bright,
My smiles and tears,
Not labeled by wrong and right,
Expectations,
Had not become my thorny crown,
Responsibilities,
Were not thrust to weigh me down,
My mistakes,
Never took my loved ones away,
My choices,
Didn't come at a cost I couldn't pay,
My thought,
Wasn't clouded by sanity,
My behavior,
Wasn't corrupted by humanity,
My wishes,
Were not killed by compromise,
My instincts,
Didn't fear the judgements of wise.
The kisses,
Were pristine and hugs comforting
Even the reprimand,
Wasn't meant to be so hurting,
Only later,
Was it that I realized,
I always got it wrong,
When the grown ups advised,
Grow up,
Is what they always said,
But Grow in,
Is what was meant I'm afraid

Saturday, April 8, 2017

तो क्या करूँ

तो क्या करूँ गर मैं तुम सा नहीं
मेरी आदतें अलग हैं
मेरी सोच अलग है
दिल तो आज भी तुम्हारा है
बस उसपर लगी खरोंच अलग है
कई बातें समझता तो हूँ
पर यूँ ही मान कैसे लूँ?
खंजर पे लगी गुज़ारिश मंज़ूर
पर इनाम में फ़रमान कैसे लूँ?
तुमसा तो हो जाऊँ मगर
तुम नहीं मैं हो सकता
तुझे खुद में उतार भी लूँ
तो खुद से गुम नहीं हो सकता
तेरा दिल रख तो लूँ
पर उसे सम्भालना मुश्किल होगा
अपने दिल को तोड़ भी दूँ
पूरी तरह निकालना  मुश्किल होगा
यूँ न खींचो अपनी ओर
एक एक कर बढ़ाने दो कदम
प्यार से ही सही पर यूँ न जकड़ो
कि घुट जाने लगे दम
हक से चाहो मार दो
नीयत पे मेरी यूँ शक न करो
लाखों चोट पहुंचा लो मगर
उसे मेरी सबक न कहो
न तुम  सही  न मैं गलत
क्यों न मान जाएँ न मानने को?
तू जिद्दी मैं ढीठ हूँ
चल ठान लें कुछ न ठानने को
तू उस ओर  मैं इस ओर बढ़ूँ
कि शायद फिर भी रास्ते मिल जाएँ
एक दूसरे का रास्ता रोकने से  अच्छा
दोनों ही रास्ते से हिल जाएँ?
तो क्या करूँ गर मैं तुम सा नहीं
मेरी आदतें अलग हैं
मेरी सोच अलग है

Monday, March 20, 2017

एक दराज़

घर मे एक दराज़ था
सालों बाद जब खोला इस बार
तो कई लम्हे पड़े मिले
कुछ यादों के पन्ने
कुछ सपनों के धागे
कुछ आगाज़ जिन्हें अंजाम ना मिला
कुछ रिश्ते जिन्हें नाम ना मिला
एक तोहफ़ा जिसे भुलाना चाहता था
पर मिटाना नहीं
एक खिलौना जिसे सजाना चाहता था
पर दिखाना नहीं
कुछ रसीदें थीं
जो अपनी उम्र से ज्यादा जी गयी थीं
 एक कलम जिसकी स्याही
काग़ज़ की टुकड़ियां पी गयी थीं
कुछ पुर्जे ऐसी चीजों के
जिनकी न अब याद बाकी थी
न बुनियाद बाकी
अपनी किस्मत से अन्जान
बस ढेरों में तादाद बाकी
दो सिक्के आज भी थे
किसी गुल्लक की पनाह की राह में
एक चाभी थी गुमसुम सी
ताले से मिलने की चाह में
एक डायरी जिसे अधूरेपन का मलाल था
एक घड़ी जिसे आज भी वक़्त का ख्याल था
धागे में लगी सूई जिसने
कपड़ों की उमर बढ़ाई थी
एक पुरानी कैसेट जिसने
करवटें धुनों पर बिताई थी
कुछ बचपन के ताल्लुक
कुछ लड़कपन के मिजाज़
समेटे बैठा था खुद में
वो लकड़ी का दराज़